दोस्तों, एक हफ्ते बाद VALENTINE DAY है... हर बार कि तरह इस बार भी कई लोग, कई संस्थाएं इसका विरोध करेंगे... लेकिन इतना समय गुज़र जाने के बाद भी प्रेम का ग्राफ गिरा नहीं, हमेशा बढ़ा ही है... प्रस्तुत लेख इस बार कि अहा ज़िन्दगी प्रेम विशेषांक से हैं जिसे निम्न साहित्यकारों ने लिखा है. VALENTINE DAY तक आपको इस विशेषांक के गुलदस्ते से कुछ न कुछ पढ़ता रहूँगा... हमने पढ़ा ये और सोचा कि क्यों न इससे आपसे बांटा जाए... सुना है कि बाँटने से भी तो प्रेम बढ़ता है - देवाशीष प्रसून, रश्मि रमानी... तो प्रस्तुत हैं इनके लेख के कुछ अंश और अंत में पाब्लो नेरुदा की एक प्रेम कविता भी है :
"हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं,
...जिनमें वो फंसने नहीं आती,
जैसे हवाएं मेरे सीने से करती हैं,
जिनको वो गहराई तक दबा नहीं पाती,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ."
"अफ़सोस ये है कि हमारे समाज में फिल्मों और अधकचरे साहित्य कि बदौलत एक बहुत भ्रामक प्रचार ये भी रहा है कि प्रेम, जीवन में बस एक बार होता है, जो कि यकीन मानिये सरासर झूठ है. ऐसा वो लोग सोचते हैं जिन्हें लगता है कि प्रेम किसी ख़ास शख्सियत से ही किया जा सकता है और इस मामले में दुनिया से वे मतलब नहीं रखते, लेकिन सही आशिक ये सोचते हैं कि जीवन में किया जाने वाला आपके हिस्से का प्यार दरअसल पूरी कायनात से कि गयी आपकी मोहब्बत है, न कि किसी एक ख़ास इंसान से. जो लोग सही में प्रेम करते हैं या प्रेम को जीना जानते हैं वो किसी 'एक व्यक्ति विशेष' के इनकार से या उनकी जुदाई से खुद को कुंठित नहीं करते.
- देवाशीष प्रसून
" क्या कारण है कि प्रेम होने पर ह्रदय में हजारों-हज़ार फूल खिल उठते हैं, रक्त का कण-कण उत्तेजना से भर जाता है, और हर साँस शरीर में नए पुलक का संचार करती है, प्रेमानुभूति दिव्य आध्यात्मिक आनंद से साक्षात्कार करवाती है, पवित्र प्रेम से प्रेरित शारीरिक सम्बन्ध मन कि प्रसन्नता और आत्मिक आनंद का विकास करते हैं, प्रेम केवल ज्वाला से ज्वाला का मिलन नहीं, अपितु आत्मा कि पुकार है.
धारणाओ और स्थितियों में कितना विरोधाभास होता है, ये इसी से स्पष्ट है कि प्रेम का तरंगाघात महत्वपूर्ण और शक्तिशाली होने पर भी, प्रगतिशील और आधुनिक भारतीय समाज में आज भी, प्रेम सम्मानीय स्थिति में नहीं है, विशेषतः स्त्री-पुरुष का प्रेम.
प्रेम कोई ऐसी वास्तु नहीं है, जिस पर हमारा वश हो, प्रेम का अनुभव मात्र पुस्तकों को पढ़कर या दूसरों के अनुभव जानकार नहीं किया जा सकता. ये एक निजी अनुभूति है. अकेले होने पर, उदास होने पर या असहाय होने पर या असहाय स्थिति में ह्रदय उद्वेलित होने पर, ग्लानी होने पर, व्यक्ति प्रेम की आवश्यकता को तीव्रता से अनुभव करता है. प्रिय पात्र के समीप होने पर संतोष का अनुभव करता है. कई बार तो प्रेम का आनंद व्यक्ति में ऐसी तृप्ति, उर्जा और सहस भर देता है की वो चुनौतियों का सामना धेर्यपूर्वक करता है. थका डालने वाला बोझ हल्का हो उठता है और कोई भी कार्य असंभव नहीं लगता है.
प्रेम का रोमांच भी कम नहीं, जिन आत्माओं में रोमांच का अनुभव करने की शक्ति और इसे प्राप्त करने की तड़प है, उनके लिए प्रेम प्राप्ति हेतु, ये जीवन भी कुछ नहीं. प्रेमी से मिलन के मार्ग में लाख बाधाएं हों, आपार कष्ट हों और चुनौतियाँ हों पर किसे परवाह है इन सबकी ?
आज आधुनिकता की ओर भागते युग में जबकि यौनाचार स्वछंद होता जा रहा है, वो मनुष्य के प्रगतिशील होने का नहीं, आदिम होने का द्योतक है, क्योंकि जिस यौन आनंद की कोई स्मृति न हो, वो थोथा है, मृगतृष्णा है. पर शाश्वत प्रेम जो नित नूतन है, चिरंतन है - कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है, उलटे हर प्रेम, भावनाओं के खजाने को और भरपूर कर जाता है. सच्चे प्रेम को साथी स्तर पर नहीं लिया जा सकता. आत्म-समर्पण पर आधारित सच्चा प्रेम अत्यंत सफल होता है, क्योंकि न इसमें अपेक्षा होती है, न कोई प्रतिदान या मूल्य. प्रेम का वासना से कोई सरोकार नहीं, वासना का विस्फोट न होने की स्थिति में वो पवित्र है. उसकी तीव्रता की शक्ति के अधीन नहीं होने पर उमंगपूर्ण और आदर्श आनंद का निर्माण करती है.
एक आदत का छूटना उतना कष्टकारी नहीं, जितना एक साथी का bichadna, दुखांत होने पर भी प्रेम की सुकुमारता नष्ट नहीं होती, प्रेम में त्रुटियाँ ढूंढने वालों की आलोचना-विवेचना के बावजूद उसकी महत्ता निर्विवाद है, वो मानव-जीवन का सर्वोच्च वरदान है.
- रश्मि रमानी
कविता -
स्त्री देह
स्त्री-देह, सफ़ेद पहाड़ियां, उजली राने
तुम बिलकुल वैसी दिखती हो जैसी ये दुनिया
समर्पण में लेटी -
मेरी रूह किसानी देह धंसती है तुममें
और धरती की गहराई से लेती एक वंशवृक्ष उछाल.
अकेला था मैं एक सुरंग की तरह, पक्षी भरते उड़ान मुझमें
रात मुझे जलमग्न कर देती अपने परस्त कर देने वाले हमले से
खुद को बचने के वास्ते एक हथियार की तरह गढ़ा मैंने तुम्हें,
एक तीर की तरह मेरे धनुष में, एक पत्थर जैसे गुलेल में
गिरता है प्रतिशोध का समय लेकिन, और मैं तुझे प्यार करता हूँ
चिकनी हरी कई की रपटीली त्वचा का , ठोस बेचैन जिस्म दुहता हूँ में
ओह! ये गोलक वक्ष के, ओह! ये कहीं खोई सी आँखे,
ओह! ये गुलाब तरुणाई के, ओह! तुम्हारी आवाज़ धीमी और उदास!
ओ मेरी प्रिय-देह! मैं तेरी कृपा में बना रहूँगा
मेरी प्यास, मेरी अंतहीन इच्छाएं, ये बदलते हुए राजमार्ग!
उदास नदी-तालों से बहती सतत प्यास और पीछे हो लेती थकान,
और ये असीम पीढ़ा!
- पाब्लो नेरुदा
आपका, आपका ही तो
Vicky Tiwari