26 March 2011

Day 41, Home, Jabalpur (M.P.)


दोस्तों, मेरी अगली प्रेम कविता का शीर्षक है : ये श्याम कहाँ जाए...


ये श्याम कहाँ जाए...


अब के बरस की

होली में


हुआ कुछ
अजब
अनोखा
घटी
एक अनहोनी
इस बार
राधा नहीं
बल्कि
रुक्मणि
के बिन
था
श्याम अधूरा
हाँ...
राधा कृष्ण
तो हैं ही
एक दूसरे के पूरक
एक सिक्के के दो पहलु
राधा को कृष्ण कहो
या
कृष्ण को राधा
दोनों को
किया ही नहीं जा सकता
अलग
किन्तु
यदि
सब हैं कृष्ण के
कृष्ण हैं सबके
तो कृष्ण भी था
इस बार
अपनी रुक्मणि
बिन अधूरा
और
रुक्मणि भी थी
अपने श्याम
बिन अधूरी
नटखट श्याम की
अजब अनोखी
शरारत के कारण
रुक्मणि है
दूर जा बैठी
उसके बिन
श्याम
यहाँ वहां
हर जगह
कर रहा 
पूछ गूछ
कहाँ है
मेरी प्राण प्रिये
रुक्मणि
बोलो न
तुम बिन
ये श्याम कहाँ जाए...

ll विकी तिवारी ll

तुम्हारा, तुम्हारा ही तो

विकी तिवारी

25 March 2011

Day 40, Home, Jabalpur (M.P.)

दोस्तों... मेरी अगली प्रेम कविता - दिल तो बच्चा है जी...

दिल तो बच्चा है जी...


दिल तो बच्चा है जी


ये गाना नहीं
सच्चाई है
बच्चा...
जो नहीं जनता
सही गलत
सच झूट
अच्छा बुरा
वो ही तो
कर बैठता है
एक मासूमियत भरी भूल
बिना सोचे
समझे जाने
कि
उसकी इस
साफगोई से
किसी को
दर्द हुआ होगा
होता होगा
वैसे ही
ये मेरा दिल
जो अभी भी
आज भी
बच्चा ही है
कर बैठा
एक
अनचाही अनजानी
भूल
तोड़ बैठा
तुम्हारा दिल
मैंने देखी
तुम्हारे अन्दर
इक प्यारी सी बच्ची
एक समझदार माँ भी
जो रोई 
उस बच्चे की
नादानी पर
उस भूल के बाद
चलो यूँ करें
जैसे
बच्चे ज्यादा देर तक
नाराज़ नहीं होते
नाराज़ न होते हुए
माँ
कर देती है माफ़
बच्चे कर देते हैं
एक दुसरे को
दोस्ती पुच्ची
आओ
तुम्हारा दिल भी
मुझे कर दे माफ़
सच्ची मुच्ची
देते हुए
मेरे गाल पर
वही चिर परिचित
गीली पुच्ची
फिर गाते हुए वही गाना
दिल तो बच्चा है जी
सच्ची मुच्ची...

ll विकी तिवारी ll

तुम्हारा, तुम्हारा ही तो

विकी तिवारी

24 March 2011

Day 39, Home, Jabalpur (M.P.)

दोस्तों, मेरी अगली प्रेम कविता का शीर्षक है - वो नीला पुलोवर... इसे हमने आज (24/03/2011) ही लिखा है...

वो नीला पुलोवर

वो नीला पुलोवर
लाल बैगनी चकत्तेदार
जिसे पहन तुम 
लग रही हो
मोरनी
जो हो
मेरे मन मंदिर
मैं नाचने को तैयार    
तुम्हारे
नाज़ुक पैरों की
थिरकन से
खिल उठा
पुलकित हुआ
रोम रोम मेरा
तुम्हारी
हंसी की खनक
तुम्हारे
अनकहे शब्दों के
स्पंदन से
झनका दिए हैं
तुमने
मेरे तन - मन के
तार तार
मेरा तन - मन
जो पहले था
तुम पर फ़िदा
अब हो गया है
तुम्हीं पर आसक्त
तुम्हारी आँखों के
ये प्रेम प्याले
जो छलकाते जाते 
प्रेमिल मदिरा
करती जो
मदहोश
दिन रात
करती  विवश
लिखने को
एक कविता
समेटे हो
उदगार विचार
तुम्हारे पास का
वो नीला पुलोवर
लाल बैगनी चकत्तेदार
अब है
तुम्हारा ही हिस्सा
कोई और जो पहनेगा
तो लगेगा
दूसरा ही
मत करना
तुम
इसे अपने से अलग
यूँ ही
नाचती गाती
इठलाती फुदकती
रहना तुम
मेरे मन मंदिर में
रखना इस
गुल गुलशन को
हरा भरा
रह जाए ताकि
हरियाली यहाँ
तुम्हारे लिए
ओ! नीले पुलोवर वाली
आना ज़रूर
कर रहा
इंतज़ार
ये मयूर
तुम्हारा...

ll विकी तिवारी ll

तुम्हारा, तुम्हारा ही तो

विकी तिवारी 

17 March 2011

Day 38, Home, Jabalpur (M.P.)

दोस्तों... मेरी अगली कविता एक प्रेम कविता है... ये कविता मेरी इस महीने में पांचवी प्रेम कविता है... आप बस दुआ करें की... अब मैं बार बार क्या बोलूं की क्यों दुआ करें... खैर... इसका शीर्षक है - तुम्हारी यादों में (परिदर्शन) . इसे मैंने लिखा है १५ मार्च २०११ को :

तुम्हारी यादों में (परिदर्शन*)...

आज
ज़िन्दगी
फिर उसी मोड़ पर
ले आयी है
जहाँ
तुमने
बड़े प्यार से
अपनी नज़रों के
शोख इशारे से
मुझे अपने
करीब
था बुलाया
किया था
बैठ जाने का
इशारा
हाँ... वहीँ, जहाँ
कभी मैं तुम्हारे साथ
बैठा था
पहली बार
डाले
हाथों में हाथ
जब
तुम
मेरे पास
नाराज़गी से उबार
जाने के बाद आये
अब
जबकि
मैं
वहां
गया तो
वहां की हवा
मानो
चुपके से
कानो मैं
सरगोशी कर
पूछ रही हो
तुम अकेले क्यूँ आये
जाओ
वापस जाओ
और लेकर आओ
अपने निज आत्मस्वरूप
अपने प्यार को
अपनी ज़िन्दगी के साथ
आओ
ये जगह
ये हवा
ये फिजा
तुम दोनों की है
केवल
तुम्हारे अकेले की नहीं
ये मत समझना
की
तुम यहाँ
अकेले आ सकते हो
इसका
कोई जवाब
मेरे पास न था
क्या जवाब देता मैं
फिर खो गया
तुम्हारी यादों मैं...

ll विकी तिवारी ll

*परिदर्शन - Flashback

तुम्हारा, तुम्हारा ही तो

विकी तिवारी

Day 37, Home, Jabalpur (M.P.)

मेरी नयी कविता का शीर्षक है - उथल पुथल. इसे मैंने लिखा है १४ मार्च २०११ को :

उथल पुथल

उथल पुथल
मची हुई है
मेरे
मन मस्तिष्क में
पसरा रहता था
जहाँ
सन्नाटा कभी
अब वहां
टूट रहे हैं
अनोखे
अजीब
कुछ अपने
कुछ पराये 
विचारों के तूफ़ान
यही तूफ़ान
यही उथल पुथल
है मेर्र परेशानी
का सबब
पता नहीं
ये मन
हमेशा
अतियों को ही
क्यों चुनता है
या तो रहेगा
एकदम अशांत
या फिर
साधा रहेगा
एक लम्बी
भयावह
प्रश्नवाचक
चुप्पी
क्यों नहीं ये
बीच का रास्ता
अपनाता
क्या खोता है ये
मौन धारण करने में
क्या पता है
शोर मचाने में 
जाने इसकी नियति क्या है
ये चाहता क्या है
क्या
मन के 'मन' में
सवाल नहीं उठते
कि
क्यों में उठता हूँ
इतने तूफ़ान
क्यों
तेहस नहस
कर डालना चाहता हूँ
इसका
हर सुख चैन
हे मन
मेरे प्यारे मन
कभी तुम महसूस करना
वो बैचैनी
जो तुमने बोई
मेरे अंतस में
कि
मैं अकेला होकर भी
रहता नहीं अकेला 
एक पल भी
तुम्हारे सवाल
मेरे अन्दर कोंधते हैं
कुछ देर
क्यों नहीं
तुम चुप बैठते
बताना कभी
सोच कर...
तब तक
रहता हूँ मैं परेशान
जूझता हूँ
तुम्हारे
अनभिग्य
अबूझ
सवालों से
लाता हूँ जवाब
और तब
आदातानुसार
तुम फिर बदल देना
सवाल...

ll विकी तिवारी ll

आपका, आपका ही तो

विकी तिवारी 

14 March 2011

Day 36, Home, Jabalpur (M.P.)

दोस्तों... मेरी अगली कविता मेरे मन की व्यथा कथा पे आधारित है... इसे मैंने ०८/०३/२०११ को लिखा है... इसका शीर्षक है - मैं कमज़ोर हूँ...!?

मैं कमज़ोर हूँ...!?

मैं कमज़ोर हूँ..!?
क्यूँ ?
मैंने
ऐसा क्या
कर दिया
या 
कह दिया
कि
कमज़ोर
करार
कर दिया गया
अच्छा...
मैं कमज़ोर
शायद इसलिए हूँ
कि
मैं
अपने मन
में आने वाली बातों को
किसी से कर लेता हूँ
डिस्कस
किसी से कर लेता हूँ
शेअर 
यारों
दोस्तों
मित्रों
शुभचिंतकों
मुझे एक बात बताओ
समझाओ ये बात मुझे
की
कुकर के फट जाने से
अच्छा क्या है ?
उसका सीटी मरते रहना
है न...
पंखे से लटक जाने
पहाड़ से कूद जाने
या
पटरी पर लेट जाने
से अच्छा क्या है
किसी अपने से
अपना दिल हल्का
कर लेना
है न
तो फिर मैं
कमज़ोर
कहाँ से हुआ
चुनांचे
यदि मैं भी
अपनी तथाकथित
बहादुरी
का परिचय देते हुए
अपनी रगों मैं बहते
खून के हर एक
कतरे को
नसों से कर दूँ
आज़ाद
तब फिर शायद
इस सभ्य दुनिया
की नज़र में
मैं
एक
सम्मानजनक
स्थान पा सकूँ
लेकिन नहीं
तब भी
मैं
अपनी उस
'आयतित उपाधि'
से पा सकूँगा न
छुटकारा
इसलिए
मैं मानता हूँ
मेरे लिए
बेहतर यही है
की
मैं वैसा ही रहूँ
जैसा हूँ
और
मैं इतना जनता हूँ
की
मैं गलत नहीं हूँ
फिर चाहे मैं
कैसा भी हूँ
मैं
मैं हूँ
वो
शायद सही हो सकते हैं
पर 
पता नहीं क्यूँ
वो
6 और
के विज्ञान को
क्योंकर
भूल जाते हैं...

ll विकी तिवारी ll

आपका, आपका ही तो

विकी तिवारी

13 March 2011

Day 35, Home, Jabalpur (M.P.)

हम शीश नवाते हैं प्रभु शिव के चरणों में जो की एक सम्पूर्ण कलाकार हैं, भावनाओं से भरे, जिनकी हर हरकत से ब्रम्हांड हिलता है, जिनकी उच्च भाषा में सभी भाषाएँ समाहित हैं एवं जिनके वस्त्र चंद्रमा और तारे हैं.

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र जिसे पंचम वेद कहा गया है, आज अपने अस्तित्व को लेकर संघर्षरत है. अपने शहर में, साल भर में ३-४ छोटे बड़े नाट्य समारोह, कुछ अन्य नाट्य मंचन आयोजित हो जाने के बाद भी, केवल नाटक देखने के शौकीनों और रंगकर्मियों के परिजनों के अलावा, और कोई नहीं दिखता, वहीं सिंगल स्क्रीन सिनेमा एवं मल्टीप्लेक्स में आपको राजा से लेकर रंक तक दिख जायेंगे फिल्म देखते हुए और वो भी बाकायदा टिकेट लेकर, फिर चाहे वो टिकेट ३० रूपये की हो या ३०० की... ये रंगमंच का एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है. वक़्त का तकाजा है की रंगमंच के लिए भी सभी अखबार एवं राष्ट्रिय फिल्म व समाचार पत्रिकाओं में एक नियमित कॉलम निश्चित करें जो नियमित, निरंतर, निश्चित रहे. जिसमें, जैसे की हर शनिवार-रविवार को शहर में नाट्य कला से जुडी गतिविधियों का उल्लेख हो. मेरा ऐसा मानना है कि इससे जनता नाट्य कला के प्रति जागरूक एवं गंभीर होगी. जब तक रंगमंच को seriously लिया ही नहीं जायेगा, उसे अन्य कार्यों की तरह एक देनंदीन कार्य के रूप में नहीं देखा जायेगा तब तक तो कुछ हो ही नहीं सकता क्योंकि इस दुनिया का हर काम एक टीम वर्क ही होता है. आज भी ये हालत है की ठीक ठाक से दिखने वाले आम लोग, रंगमंच को अपनी रोज़मर्रा की बातचीत का हिस्सा नहीं मानते. रंगमंच को एकदम दोयम दर्जे का समझते हैं, उसे हाशिये पे डाल देते हैं. थिएटर से जुड़े कलाकारों को इस दुनिया का ही नहीं माना जाता. लेकिन एक बात अकाट्य सत्य है की आम लोगों की तरह हम कलाकारों की भी दो आँखें, दो हाथ, दो पैर, एक सोचने वाला दिमाग, एक समझने वाला दिल होता है, यही नहीं, हमारे खून का रंग भी लाल ही होता है, दर्द हमे भी होता है तो फिर हम आम लोगों से, इस दुनिया से अलग कैसे हुए. हमे क्यों नहीं अपने बीच का, अपना सा समझा जाता.

बहरहाल, मेरा मीडिया और देश की जनता से अनुरोध है की भविष्य में जब कभी आपके अथवा किसी अन्य शहर में कोई नाटक एवं नाट्य समारोह आयोजित हों तो उन्हें देखने अवश्य जाएँ. क्योंकि किसी भी फिल्म की तरह ही इसमें भी प्रकाश व्यवस्था, मंच निर्माण, संगीत आदि जैसी चीज़ों पर कई उनींदी रातों की तन तोड़   मेहनत रहती है जिसे दर्शकों के सामने महज़ १-२ घंटों के लिए प्रस्तुत किया जाता है और इतना सब करने के बाद भी दर्शकों से वैसा फीडबैक नहीं मिलता तो ऐसे में कलाकार का हतोत्साहित होना, उसका मनोबल गिरना लाज़मी है. सबसे मुख्य बात, यहाँ हर काम बिना रीटेक  के होता है चाहे वो अभिनय हो, ध्वनि हो या कुछ और. चलते नाटक में हुई एक छोटी सी भी भूल को सुधारा नहीं जा सकता. कलाकार भी एक इंसान ही है, वो खुद को भूल कर किसी अनजान चरित्र को अपने अन्दर जीवित करता है और ये बात बिलकुल सच है की अभिनय से ज्यादा मानसिक श्रम मांगने वाला कोई कार्य है ही नहीं. इसमें व्यक्ति अपने अन्दर एक नए इंसान को जन्म देता है, अपने आप की कीमत पर. बकौल सुभाष घई - "An Actor means a person who brings out somebody's soul into his soul & projects the right kind of emotions." देश की तमाम व्यवसाइक व व्यापारिक इकाईयों से सविनय उग्र निवेदन एवं अनुरोध है की जब कभी अपने शहर में नाट्य समारोह आयोजित हों उन्हें मुक्त हस्त से दान करें एवं खुले मन से प्रायोजित अर्थात sponsor करें. जनता एवं मीडिया से अनुरोध है की कृपया फ्री पास की इच्छा त्याग कर, सेवा एवं अहोभाव से टिकट लेकर नाटक देखें क्योंकि सिंगल स्क्रीन सिनेमा व मल्टीप्लेक्स में फिल्म भी तो टिकट लेकर ही देखी जाती है न.

एक बात प्रेक्षाग्रहों के सम्बन्ध में भी खटकती है कि जबलपुर में जो अच्छे प्रेक्षागृह हैं उनका एक दिन का किराया ही इतना ज्यादा है की १० में से ८, नाट्य मंचन की योजनायें कागजों में दम तोड़ देती हैं. इस कारण तन-मन-धन, समय व मेहनत की हानि होती है. एक निश्चित रिहर्सल की जगह न होने के कारण रंग टोलियाँ ययावर की भांति यहाँ से वहां भटकने बाध्य हैं. कुल जमा बात ये की रंगमंच को बढ़ावा देना है तो समग्र रूप से सभी को देना होगा. मसलन अच्छे प्रायोजक, बेहतर मीडिया कवरएज, व्यापक जन सहयोग, अच्छे व कर्मठ कलाकारों का दखल व योगदान, सेवा भावना आदि. और ये योगदान निस्वार्थ हो तो और ज्यादा अच्छा होगा. बाकी बचे कुछ दूसरे प्रेक्षाग्रह इस लायक ही नहीं हैं की वहां नाट्य मंचन हो सके क्योंकि रंगमंच का आर्कीटैकचर ही दूसरी तरह का होता है, और किसी तरह के निर्माण से बिलकुल अलग.

अमूमन, नाटक के कलाकरों के बारे में, उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारे में जाने कैसी कैसी बातें होती रहती हैं. मगर यही बातें करने वाले भूल जाते हैं की वे सारे कलाकार जो रंगमंच से फिल्मों में गए हैं, उनकी अभिनय कला का कोई सानी नहीं है. वो ये भूल जाते हैं की जिन फिल्म स्टारों को देख वे ताली बजाते हैं, वे भी कभी थिएटर करते थे और कुछ तो आज भी करते हैं. क्योंकि एक थिएटर आर्टिस्ट भले ही कितनी भी फ़िल्में कर ले लेकिन जो प्यास रंगमंच शांत कर सकता है, वो दुनिया का कोई पानी, कोई कोल्ड ड्रिंक शांत नहीं कर सकता. कुछ १-२ साल पहले, दक्षिण भारतीय फिल्म कलाकरों की संस्था South Indian  Film Artist Association द्वारा आयोजित एक नाट्य समारोह में सुपरस्टार रजनीकांत ने कहा - "संतुष्टि आप केवल नाटक करके ही पा सकते हैं, अभिनेता को मंच से ही संतुष्टि मिलती है." अपनी इस driving force के साथ यही की -

मौजें कभी तो हारेंगी तेरे यकीन से, साहिल पे रोज़ एक घरोंदा बना के देख 
और
कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या, कोई कला, कोई योग तथा
कोई कर्म ऐसा नहीं है जो नाटी मैं दिखाई न देता हो...

ll विकी तिवारी ll


आपका, आपका ही तो

विकी तिवारी

12 March 2011

Day 34, Home, Jabaplur (M.P.)

दोस्तों, कल यानी ११ तारिख को मैं रात को ठीक से सो नहीं पाया... करवटों पे करवटें बदलता रहा और आज सुबह उठा तो मेरे हाथों ने एक कविता रच डाली मेरे रात की बेचैनी पर... पता नहीं और कितने कविताएँ पोशीदा हैं मेरे जागने मैं... खेर, प्रस्तुत है मेरी एक नयी प्रेम कविता जिसे हमने आज ही लिख है, शीर्षक है - छटपटाहट  : 

छटपटाहट  
कल
रात भर
तुम्हारा नाम लेकर
छटपटाता रहा
अपने बिस्तर पर
हाँ...
वही बिस्तर
जहाँ
मैं
और 
तुम्हारा
मानस रूप
स्वरुप
हुआ करता था कभी
पर आज
पता नहीं क्यों
एक
अजीब सा
ख़ालीपन है
तुम्हारे बगैर
तुम
साथ नहीं हो
और
न ही है
तुम्हारा
मानस रूप
वो स्वरुप
आज
मेरी
बाहों का वो
अप्रत्याशित
अकल्पनीय
खालीपन
तुम्हारे सिवा
और कौन
भर सकता है ?
बोलो न...
कौन वो जगह
भर सकता है ?
कभी
तुम भी तो
महसूस करो
वो तड़प
वो छटपटाहट
जो
मैं
महसूस कर रहा हूँ
तुम्हारे लिए
हर घडी
हर पल 
पर...
खैर...
रहने दो...
जाने दो...
मत महसूस करना
तुम
वो दर्द
जो
मेरे दिल मैं
तुम्हारे लिए है
क्योंकि
अपना दर्द तो मैं
सह सकता हूँ
तुम्हारे साथ न होने
के दर्द को भी
सह सकता हूँ
पर
नहीं सह सकता
कि
ये दर्द तुम्हें हो
ये मेरे लिए
किसी विभीषिका*
से कम न होगा
तुम्हारे जाने का दर्द
वो गम
इस बात
के आगे
कुछ भी नहीं
की
तुम्हें हुआ
ज़रा सा दर्द
तिल भर की चुभन भी
मेरे लिए
किसी
त्रासदी
से कम नहीं...
प्राकृतिक त्रासदी
तो
रोकी भी नहीं जा सकती
लेकिन
'ये त्रासदी'
की 'प्रकृति'
केवल
हम दोनों मिलकर ही
रोक सकते हैं
आओ,
इस हादसे को
और त्रासद रूप
लेने से रोकें...
रोको इस छटपटाहट को
जो साथ लिए जा रही है
मुझे
एक अंतहीन सफ़र पर
जहाँ से लौट पाना मुमकिन नहीं
लेकिन
ये सफ़र भी
क्या मुझे
तुम्हारे बिना ही
तय करना है ?
नहीं...
नहीं कर सकता
मैं ये सफ़र
तुम्हारे बगैर
तुम्हारे संग
चुनांचे
गर मैं गया
तो
दर्द कहीं और होगा...
तुम्हें... हाँ, तुम्हें...
और
फिर वही
चिर परिचित
विभीषिका
घटित होगी
एक बात बोलूं...
तुम्हीं
मुझे
इस चक्रक दोष* से
आज़ाद
कर सकती हो
आओ,
साथ मेरे
हम रचें
बिना छटपटाहट
एक नया इतिहास...


ll विकी तिवारी ll

विभीषिका : त्रासदी, बड़ा हादसा
चक्रक दोष : cyclic fallacy

तुम्हारा, तुम्हारा ही तो

विकी तिवारी

09 March 2011

Day 33, Office, Jabalpur (M.P.)

ये मेरी एक और नयी कविता है, जो हमने 04 / 03 / 2011 को लिखी थी, ये कविता समर्पित भी है किसी को, ये एक प्रेम कविता है जिसका शीर्षक है - यूँ भी कभी

यूँ भी कभी

अपने घर में
सोफे पर
फुरसत के पलों में
कभी यूँ ही
लेटा रहा करूँगा
तुम्हारी गोद में
सर रखकर
यूँ भी कभी
तुम मेरी आगोश में
आ जाओ
तुम मुझ में
मैं तुम में
हो जाएँ विलीन 
हम दोनों
एक दुसरे में खो जाएँ
यूँ भी कभी
शाम के धुंधलके में
हम मिलें
कुछ इस तरह
कि न रह जाएँ
ज़रा सी भी दूरियां
हमारे बीच
यूँ भी कभी
लहलहाती हरी घास पर
हम चलते चले जाएँ
एक अंतहीन सफ़र पर
यूँ भी कभी
ठण्ड की ठिठुरती शामों में
हम
अपनी गर्म साँसों से
लिखें
एक नयी इबारत प्रेम की
यूँ भी कभी
मैं उछालूं तुम्हें
किसी बच्चे की तरह
तुम्हारी
निर्मल शांत निश्छल हंसी
कि एक झलक पाने
यूँ भी कभी
तुम मुझे
किसी किताब की तरह
रख लो सीने पर
और मैं
तुम्हें समेट लूँ
अपने शब्दों में
कुछ इस तरह
की
तुम
बन जाओ
मेरे
शब्द
और मैं
बन जाऊं
तुम्हारी किताब
शब्द और किताब...
जो बनते हैं
एक दुसरे के लिए
क्योंकि
बिना एक दुसरे के
दोनों के होने का
कोई मतलब नहीं
ठीक हमारी तरह
यूँ भी कभी
हम लेटें
एक साथ
निहारें आकाश को
जो है
तुम्हारी बाहों के घेरे सा विशाल
तुम्हारा एहसास कहता है
मेरे रहो
ये
मुझे अपना बना लो
कभी यूँ भी
जी करता है
की
तुम्हें
अपनी गोद में उठा कर
भीगता रहूँ बारिश में
देर तक
यूँ भी कभी
उम्मीद करता हूँ
की
ये ज़िन्दगी
यूँ ही गुज़र जाए
उसी सोफे पर
तुम्हारी गोद मैं
सर
रखे हुए...

ll विकी तिवारी ll

आपका... आपका ही तो...

विकी तिवारी 

01 March 2011

Day 32, Office, Jabalpur (M.P.)

ये मेरी एक नयी कविता है, जो हमने आज (02 / 03 / 2011) ही लिखी है, ये कविता समर्पित भी है किसी को, ये एक प्रेम कविता है जिसका शीर्षक है - 

तुम मैं... मैं तुम :
------------------------------------------
तुम मैं... मैं तुम

तुम मैं
मैं तुम
हुए
एक दुसरे में
गुम
किसी
फ़रिश्ते
की तरह
तुमने लिया
मेरा हाथ
अपने
हाथों में
मैं मुस्काया
किन्तु
मेरा हाथ
ढीला
ही रहा
कुछ पलों की
दूरी के बाद
मैंने भी
पकड़ा फिर
हाथ तुम्हारा
मैं फिर मुस्काया
ये भूलकर
की
कुछ देर पहले ही
किसी और से
बात
करते रहने पर
तुमने
कुछ फेंका था मुझ पर
ये कह कर
कि
इतने दिनों बाद
मिले हो
तब भी
किसी और से ही
बात कर रहे हो
लेकिन
तुम
भूल गयीं
कि
हम
बहुत दिनों बाद नहीं
सिर्फ
दो ही दिन 
बाद तो मिले थे
और
सच बताऊँ
मुझे भी ऐसा ही लगा
कि
हम दो दिनों बाद नहीं
बहुत दिनों बाद मिले हैं
तब समझ आया
उस बात का मतलब
की
"हम जिससे मिलते हैं
वैसे हो जाते हैं
पानी में
हर रंग 
मिलाया जा सकता है"
इसी तरह
पानी में मिले
रंग को
एक दूसरे से 
अलग 
नहीं किया जा सकता
ठीक वैसे ही
जैसे हम दोनों
जो हैं 
एक दूसरे में
गुम
पानी में पानी की तरह
हम
एक दूसरे में
घुल के सो जाएँ
हो जाएँ
फिर एक बार
एक दूसरे में
गुम...

II विकी तिवारी II

आपका, आपका ही तो

विकी तिवारी