हम शीश नवाते हैं प्रभु शिव के चरणों में जो की एक सम्पूर्ण कलाकार हैं, भावनाओं से भरे, जिनकी हर हरकत से ब्रम्हांड हिलता है, जिनकी उच्च भाषा में सभी भाषाएँ समाहित हैं एवं जिनके वस्त्र चंद्रमा और तारे हैं.
भरतमुनि का नाट्यशास्त्र जिसे पंचम वेद कहा गया है, आज अपने अस्तित्व को लेकर संघर्षरत है. अपने शहर में, साल भर में ३-४ छोटे बड़े नाट्य समारोह, कुछ अन्य नाट्य मंचन आयोजित हो जाने के बाद भी, केवल नाटक देखने के शौकीनों और रंगकर्मियों के परिजनों के अलावा, और कोई नहीं दिखता, वहीं सिंगल स्क्रीन सिनेमा एवं मल्टीप्लेक्स में आपको राजा से लेकर रंक तक दिख जायेंगे फिल्म देखते हुए और वो भी बाकायदा टिकेट लेकर, फिर चाहे वो टिकेट ३० रूपये की हो या ३०० की... ये रंगमंच का एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है. वक़्त का तकाजा है की रंगमंच के लिए भी सभी अखबार एवं राष्ट्रिय फिल्म व समाचार पत्रिकाओं में एक नियमित कॉलम निश्चित करें जो नियमित, निरंतर, निश्चित रहे. जिसमें, जैसे की हर शनिवार-रविवार को शहर में नाट्य कला से जुडी गतिविधियों का उल्लेख हो. मेरा ऐसा मानना है कि इससे जनता नाट्य कला के प्रति जागरूक एवं गंभीर होगी. जब तक रंगमंच को seriously लिया ही नहीं जायेगा, उसे अन्य कार्यों की तरह एक देनंदीन कार्य के रूप में नहीं देखा जायेगा तब तक तो कुछ हो ही नहीं सकता क्योंकि इस दुनिया का हर काम एक टीम वर्क ही होता है. आज भी ये हालत है की ठीक ठाक से दिखने वाले आम लोग, रंगमंच को अपनी रोज़मर्रा की बातचीत का हिस्सा नहीं मानते. रंगमंच को एकदम दोयम दर्जे का समझते हैं, उसे हाशिये पे डाल देते हैं. थिएटर से जुड़े कलाकारों को इस दुनिया का ही नहीं माना जाता. लेकिन एक बात अकाट्य सत्य है की आम लोगों की तरह हम कलाकारों की भी दो आँखें, दो हाथ, दो पैर, एक सोचने वाला दिमाग, एक समझने वाला दिल होता है, यही नहीं, हमारे खून का रंग भी लाल ही होता है, दर्द हमे भी होता है तो फिर हम आम लोगों से, इस दुनिया से अलग कैसे हुए. हमे क्यों नहीं अपने बीच का, अपना सा समझा जाता.
बहरहाल, मेरा मीडिया और देश की जनता से अनुरोध है की भविष्य में जब कभी आपके अथवा किसी अन्य शहर में कोई नाटक एवं नाट्य समारोह आयोजित हों तो उन्हें देखने अवश्य जाएँ. क्योंकि किसी भी फिल्म की तरह ही इसमें भी प्रकाश व्यवस्था, मंच निर्माण, संगीत आदि जैसी चीज़ों पर कई उनींदी रातों की तन तोड़ मेहनत रहती है जिसे दर्शकों के सामने महज़ १-२ घंटों के लिए प्रस्तुत किया जाता है और इतना सब करने के बाद भी दर्शकों से वैसा फीडबैक नहीं मिलता तो ऐसे में कलाकार का हतोत्साहित होना, उसका मनोबल गिरना लाज़मी है. सबसे मुख्य बात, यहाँ हर काम बिना रीटेक के होता है चाहे वो अभिनय हो, ध्वनि हो या कुछ और. चलते नाटक में हुई एक छोटी सी भी भूल को सुधारा नहीं जा सकता. कलाकार भी एक इंसान ही है, वो खुद को भूल कर किसी अनजान चरित्र को अपने अन्दर जीवित करता है और ये बात बिलकुल सच है की अभिनय से ज्यादा मानसिक श्रम मांगने वाला कोई कार्य है ही नहीं. इसमें व्यक्ति अपने अन्दर एक नए इंसान को जन्म देता है, अपने आप की कीमत पर. बकौल सुभाष घई - "An Actor means a person who brings out somebody's soul into his soul & projects the right kind of emotions." देश की तमाम व्यवसाइक व व्यापारिक इकाईयों से सविनय उग्र निवेदन एवं अनुरोध है की जब कभी अपने शहर में नाट्य समारोह आयोजित हों उन्हें मुक्त हस्त से दान करें एवं खुले मन से प्रायोजित अर्थात sponsor करें. जनता एवं मीडिया से अनुरोध है की कृपया फ्री पास की इच्छा त्याग कर, सेवा एवं अहोभाव से टिकट लेकर नाटक देखें क्योंकि सिंगल स्क्रीन सिनेमा व मल्टीप्लेक्स में फिल्म भी तो टिकट लेकर ही देखी जाती है न.
एक बात प्रेक्षाग्रहों के सम्बन्ध में भी खटकती है कि जबलपुर में जो अच्छे प्रेक्षागृह हैं उनका एक दिन का किराया ही इतना ज्यादा है की १० में से ८, नाट्य मंचन की योजनायें कागजों में दम तोड़ देती हैं. इस कारण तन-मन-धन, समय व मेहनत की हानि होती है. एक निश्चित रिहर्सल की जगह न होने के कारण रंग टोलियाँ ययावर की भांति यहाँ से वहां भटकने बाध्य हैं. कुल जमा बात ये की रंगमंच को बढ़ावा देना है तो समग्र रूप से सभी को देना होगा. मसलन अच्छे प्रायोजक, बेहतर मीडिया कवरएज, व्यापक जन सहयोग, अच्छे व कर्मठ कलाकारों का दखल व योगदान, सेवा भावना आदि. और ये योगदान निस्वार्थ हो तो और ज्यादा अच्छा होगा. बाकी बचे कुछ दूसरे प्रेक्षाग्रह इस लायक ही नहीं हैं की वहां नाट्य मंचन हो सके क्योंकि रंगमंच का आर्कीटैकचर ही दूसरी तरह का होता है, और किसी तरह के निर्माण से बिलकुल अलग.
अमूमन, नाटक के कलाकरों के बारे में, उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारे में जाने कैसी कैसी बातें होती रहती हैं. मगर यही बातें करने वाले भूल जाते हैं की वे सारे कलाकार जो रंगमंच से फिल्मों में गए हैं, उनकी अभिनय कला का कोई सानी नहीं है. वो ये भूल जाते हैं की जिन फिल्म स्टारों को देख वे ताली बजाते हैं, वे भी कभी थिएटर करते थे और कुछ तो आज भी करते हैं. क्योंकि एक थिएटर आर्टिस्ट भले ही कितनी भी फ़िल्में कर ले लेकिन जो प्यास रंगमंच शांत कर सकता है, वो दुनिया का कोई पानी, कोई कोल्ड ड्रिंक शांत नहीं कर सकता. कुछ १-२ साल पहले, दक्षिण भारतीय फिल्म कलाकरों की संस्था South Indian Film Artist Association द्वारा आयोजित एक नाट्य समारोह में सुपरस्टार रजनीकांत ने कहा - "संतुष्टि आप केवल नाटक करके ही पा सकते हैं, अभिनेता को मंच से ही संतुष्टि मिलती है." अपनी इस driving force के साथ यही की -
मौजें कभी तो हारेंगी तेरे यकीन से, साहिल पे रोज़ एक घरोंदा बना के देख
और
कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या, कोई कला, कोई योग तथा
कोई कर्म ऐसा नहीं है जो नाटी मैं दिखाई न देता हो...
ll विकी तिवारी ll
आपका, आपका ही तो
विकी तिवारी